( welcome to Triveni yoga Foundation
त्रिवेणी योग में आपका स्वागत है ) Triveni Yoga 🙏

Triveni Yoga त्रिवेणी योग त्रिवेणी योग 2
(Home) (Yoga (योग ) Asanas(आसन) Pranayama(प्राणायाम) Meditation (ध्यान ) Yoga Poses (योग मुद्राएँ) Hatha Yoga ( हठ योग) Ashtanga (अष्टांग योग) Therapys ( चिकित्सा) Kundalini(कुण्डलिनी)PanchaKarma(पंचकर्म) Saṭkarma(षटकर्म )Illness Related (बीमारी संबंधी) Gallery BlogOur Teachers( हमारे अध्यापक) About Us ( हमारे बारे )

welcome to Triveni yoga
(त्रिवेणी योग में आपका स्वागत है)

Every Sunday Yoga Classes Free

You Can Translate Site according. your language

You can translate the content of this page by selecting a language in the select box.




चौथा अध्याय ( प्रत्याहार वर्णन )

चौथे अध्याय में महर्षि घेरण्ड ने प्रत्याहार का वर्णन किया है । प्रत्याहार को इन्होंने योग के चौथे अंग के रूप में माना है । प्रत्याहार के पालन से साधक को धैर्य की प्राप्ति होती है अर्थात् धैर्य को प्रत्याहार का फल बताया गया है ।

प्रत्याहार वर्णन

अथात: सम्प्रवक्ष्यामि प्रत्याहारकमुत्तमम् । यस्य विज्ञानमात्रेण कामादिरिपुनाशनम् ।। 1 ।।

भावार्थ :- इसके बाद ( मुद्राओं के बाद ) अब मैं प्रत्याहार के विषय में कहता हूँ । जिसके ज्ञान को जानने मात्र से ही ( केवल जानने से ही ) काम वासना आदि शत्रु नष्ट हो जाते हैं। विशेष :- प्रत्याहार से काम वासना से सम्बंधित सभी विकार नष्ट हो जाते हैं ।

यतो यतो मनश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 2 ।।

भावार्थ :- मन की चंचल प्रवृत्ति होने के कारण यह कहीं- कहीं घूमता रहता है । अतः यह चंचल मन जहाँ- जहाँ भी जाता है । उसे वहीं से रोककर सदा अपने वश में अर्थात् अपने नियंत्रण में रखना चाहिए ।

पुरस्कारं तिरस्कारं सुश्राव्यं भावमायकम् । मनस्तस्मान्नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 3 ।।

भावार्थ :- सम्मान हो या अपमान, कानों के लिए प्रशंसा ( अच्छा ) हो या निन्दा ( बुरा ), इन सभी से मन को हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । विशेष :- सम्मान व अपमान और प्रशंसा व निन्दा दोनों ही अवस्थाओं में अपने को समान रखते हुए अपने मन को नियंत्रित करना चाहिए । इस श्लोक में कर्ण अर्थात् कान नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है ।

सुगन्धो वापि दुर्गन्धो घ्राणेषु जायते मन: । तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 4 ।।

भावार्थ :- सुगन्ध हो या दुर्गन्ध नासिका द्वारा दोनों को ही ग्रहण किया जाता है । सुगन्ध व दुर्गन्ध दोनों में ही मन स्वयं ही चला जाता है । अतः मन को वहाँ से हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में नासिका नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है ।

मधुराम्लकतिक्तादिरसं गतं यदा मन: । तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। 5 ।।

भावार्थ :- जब हमारा मन मीठे, खट्टे, तीखे आदि रसों में जाता है । तब उसे वहाँ से भी हटाकर अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में जिह्वा ( जीभ ) नामक इन्द्री के विषय को बताया गया है । प्रत्याहार के इस पूरे अध्याय में मन को अपने नियंत्रण में रखने की ही बात कही गई है । यह घेरण्ड संहिता का सबसे छोटा अध्याय है । जिसमें कुल पाँच ही श्लोक हैं । प्रत्याहार में मन को अपनी इन्द्रियों से विमुख करने का ही उपदेश दिया जाता है । यहाँ पर एक विशेष बात यह है कि इसमें केवल तीन इन्द्रियों ( कान, नाक व जीभ ) के ही विषयों से मन को हटाकर अपने नियंत्रण में रखने का उपदेश दिया गया है । जबकि कुल ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच होती हैं । यहाँ पर त्वचा व आँख के विषय में चर्चा नहीं की गई है । यह विद्वानों के लिए चर्चा का विषय है । परीक्षा की दृष्टि से भी इस प्रकार का प्रश्न पूछा जा सकता है कि प्रत्याहार के प्रकरण में किन – किन ज्ञानेंद्रियों की चर्चा की गई है ? उत्तर है कान, नासिका व जीभ । इसके अलावा यह भी पूछा जा सकता है कि किस- किस ज्ञानेंद्रियों के विषयों की चर्चा नहीं की गई है ? उत्तर है त्वचा व आँख । ।। इति चतुर्थोपदेश: समाप्त: ।। इसी के साथ घेरण्ड संहिता का चौथा अध्याय ( प्रत्याहार वर्णन ) समाप्त हुआ ।

Join Us On Social Media

 Last Date Modified

2024-08-05 16:02:34

Your IP Address

18.216.67.249

Your Your Country

United States

Total Visitars

5

Powered by Triveni Yoga Foundation


pacman, rainbows, and roller s